गुरु पूर्णिमा आज, ऐसे करें गुरु की उपासना
Astrology Articles I Posted on 19-07-2016 ,12:55:49 I by:
गुरु पूर्णिमा का पावन पर्व अपने आराध्य गुरु को श्रद्धा अर्पित करने का
महापर्व है। देशभर में गुरु पूर्णिमा का पर्व बड़ी श्रद्धा और धूमधाम से
मनाया जाता है।
आषाढ़ के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को ही गुरु पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन गुरु पूजा का विधान है।
शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल अज्ञान और रु का अर्थ है- उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है
अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को ‘गुरु’ कहा जाता है।वर्षा
ऋतु के आगमन के साथ जब धरती हरी-भरी होने लगती है तब ऐसे समय में गुरु
पूर्णिमा मनाने का विधान है। गुरु पूर्णिमा से जुड़ी तमाम मान्यताओं में एक
यह है कि इस दिन महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिन भी
है। कृष्ण द्वैपायन व्यास संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थे और उन्होंने
चारों वेदों की भी रचना की इसलिए उनका नाम वेद व्यास पड़ा। वेद व्यास के
सम्मान में हर साल गुरु पूर्णिमा का पर्व मनाया जाता है। भारतीय
धर्मग्रंथों में गुरू का बेहद अहम स्थान है, गुरु को ईश्वर का समतुल्य
दर्जा दिया गया है। संस्कृत में एक श्लोक है-
अज्ञान तिमिरांधश्च ज्ञानांजन शलाकया,चक्षुन्मीलितम तस्मै श्री गुरुवै नम: अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को ‘गुरू’ कहा जाता है।
गुरु पूर्णिमा के दिन क्या करें---प्रात:
घर की सफाई, स्नानादि नित्य कर्म से निवृत्त होकर साफ-सुथरे वस्त्र धारण
करके तैयार हो जाएं. घर में 12-12 रेखाएं बनाकर व्यास-पीठ बनाइए। गुरू की
पूजा करें पूजा में व्यासजी, ब्रह्माजी, शुकदेवजी और शंकराचार्यजी के नाम,
मंत्र से पूजा का आह्वान करना चाहिए। गुरुपरंपरासिद्धयर्थं व्यासपूजां
करिष्ये नाम से मंत्र का जाप करना चाहिए। तत्पश्चात अपनें गुरू को उपहार
देना चाहिए।
गुरु गायत्री मंत्र- ।। ऊं गुरुदेवाय विद्महे परब्रह्माय धीमहि तन्नो गुरु प्रचोदयात् ।। प्राचीन
काल में लोग शिक्षा ग्रहण के लिए गुरु के पास जाते थे। प्राचीन काल में
शिक्षा के लिए कोई शुल्क नहीं ली जाती थी। शिष्य अपने सामर्थ्य के अनुसार
गुरु को इसी दिन गुरु दक्षिणा देते थे।
रामचरितमानस में गुरु वंदना
बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥चौपाई --बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥
सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥
श्री गुरु पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥
दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥
उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥
सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥
दोहा --जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।
कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान॥
चौपाई --गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥
तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन॥