इस घास का तिलक रोज लगाने से बनने लगते हैं धन के महायोग
Astrology Articles I Posted on 23-10-2017 ,11:03:04 I by: vijay
धार्मिक ग्रंथो एवं पुराणों में दुर्वा घास को बहुत ही चमत्कारिक माना
गया है। सफेद गाय का दूध तथा दुर्वा घास को मिलाकर उसका तिलक करने से भी धन
का योग बनता है तथा व्यक्ति को धन प्राप्ति होती है।
कहा जाता है की यह समुद्र मंथन से मिली थी, अतः यह
लक्ष्मी जी की छोटी बहन है। दूर्वा गणेश जी को प्रिय है और गौरा माँ को भी।
वाल्मिकी रामायण में श्री राम जी का रंग दुर्वा की तरह बताया गया है।
पुराणों में
कथा है कि पृथ्वी पर अनलासुर राक्षस के उत्पात से त्रस्त ऋषि-मुनियों ने
इंद्र से रक्षा की प्रार्थना की। इंद्र भी उसे परास्त न कर सके। देवतागण
शिव के पास गए। शिव ने कहा इसका नाश सिर्फ गणेश ही कर सकते हैं। देवताओं की
स्तुति से प्रसन्न होकर श्रीगणेश ने अनलासुर को निगल लिया। जब उनके पेट
में जलन होने लगी तब ऋषि कश्यप ने 21 दुर्वा की गांठ उन्हें खिलाई और इससे
उनकी पेट की ज्वाला शांत हुई।
दुर्वा गहनता और पवित्रता की प्रतीक है। इसे देखते ही मन में ताजगी और
प्रफुल्लता का अनुभव होता है। शाक्तपूजा में भी भगवती को दुर्वा अर्पित की
जाती है।
अपनी तिजोरी में 9
लक्ष्मीकारक कौड़ियां और एक तांबे का सिक्का रखने से आपकी तिजोरी में धन
हमेशा भरा रहेगा।
पंचदेव
उपासना में दुर्वा का महत्वपूर्ण स्थान है। यह गणपति और दुर्गा दोनों को
अतिप्रिय है।
दुर्वा
जिसे आम भाषा में दूब भी कहते हैं एक प्रकार ही घास है। इसकी विशेषता है कि
इसकी जड़ें जमीन में बहुत गहरे (लगभग 6 फीट तक) उतर जाती हैं। विपरीत
परिस्थिति में यह अपना अस्तित्व बखूबी से बचाए रखती है।
दुर्वा गहनता और
पवित्रता की प्रतीक है। इसे देखते ही मन में ताजगी और प्रफुल्लता का अनुभव
होता है। शाक्तपूजा में भी भगवती को दुर्वा अर्पित की जाती है।
पांच दुर्वा के साथ भक्त अपने पंचभूत-पंचप्राण अस्तित्व को गुणातीत गणेश को
अर्पित करते हैं। इस प्रकार तृण के माध्यम से मानव अपनी चेतना को परमतत्व
में विलीन कर देता है।
श्रीगणेश पूजा में दो, तीन या पांच दुर्वा
अर्पण करने का विधान तंत्र शास्त्र में मिलता है। इसके गूढ़ अर्थ हैं।
संख्याशास्त्र के अनुसार दुर्वा का अर्थ जीव होता है जो सुख और दु:ख ये दो
भोग भोगता है। जिस प्रकार जीव पाप-पुण्य के अनुरूप जन्म लेता है।
दुर्वा अपने कई जड़ों से जन्म लेती है। दो दुर्वा के माध्यम से
मनुष्य सुख-दु:ख के द्वंद्व को परमात्मा को समर्पित करता है। तीन दुर्वा का
प्रयोग यज्ञ में होता है। ये आणव (भौतिक), कार्मण (कर्मजनित) और मायिक
(माया से प्रभावित) रूपी अवगुणों का भस्म करने का प्रतीक है।
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