रीति रिवाज के अनुसार कराए गए श्राद्ध कर्म से तृप्त होकर...

कितना जानते हैं आप श्राद्ध के बारे में? मुत्यु तिथि पर किया जाने वाला तर्पण और श्राद्ध पितरों की अक्षय तृप्ति का साधक होता है। तिलांजलि से तृप्त होकर पितृ आशीर्वाद प्रदान करते हैं। श्राद्ध देवता (वसु, रुद्र, आदित्य) हमारे श्राद्ध कर्म से तृप्त होकर मनुष्यों के पितरों को भी तृप्त करते हैं। याज्ञवल्क्य का कथन है कि रीति रिवाज के अनुसार कराए गए श्राद्ध कर्म से तृप्त होकर श्राद्ध देवता श्राद्ध कर्त्ता एवं उसके वंशजों को दीर्घ जीवन, आज्ञाकारी संतान, धन विद्या, सुख समृद्धि और स्वास्थ्य का आशीर्वाद देते हैं, उन्हें स्वर्ग तथा दुर्लभ मोक्ष भी प्रदान करते हैं।


स्कन्दपुराण में कहा गया है कि सूर्यदेव के कन्या राशि पर स्थित रहते समय आश्विन कृष्णपक्ष (श्राद्धपक्ष या महालय) में पितर अपने वंशजों द्वारा किए जाने वाले श्राद्ध व तर्पण से तृप्ति की इच्छा रखते हैं। जो मनुष्य पितरों की मृत्यु तिथि पर श्राद्ध -तर्पण करेंगे, उनके उस श्राद्ध से पितरों को एक वर्ष तक तृप्ति बनी रहेगी।

तर्पण के मायने भी समझें
तिल मिश्रित जल और कुश के साथ किये गए तर्पण को ही तिलांजलि कहा जाता है। तर्पण मेंदो कुशों से बनायी हुई पवित्री दाहिने हाथ की अनामिका के मूल भाग में और तीन कुशों से बनायी गयी पवित्री बायीं अनामिका के मूल में धारण करके, हाथ में तीन कुश, जौ, अक्षत और जल लेकर दक्षिण की ओर मुंह कर पिता, पितामह, प्रपितामह तथा माता, मातामह, प्रमातामह के निमित्त तीन-तीन तिलांजलि दी जाती हैं। तर्पण में ध्यान रखें, तर्पण दक्षिण की ओर मुख करके अपसव्य होकर किया जाता है। सप्तम, रविवार, जन्मदिन में एवं पुत्र और स्त्री की कामना वाले मनुष्य तिल से तर्पण न करें। नन्दा तिथि जैसे 1, 6, 11 और शुक्रवार, कृतिका, मघा एवं भरणी नक्षत्र और गजच्छाया योग में तिल मिले जल से कदापि तर्पण न करें।

ग्रहण काल, पितृश्राद्ध, व्यतीपात योग, अमावस्या और संक्रान्ति के दिन निषेध होने पर भी तिल से तर्पण करें। किन्तु अन्य दिनों में घर में तिल से तर्पण न करें। सोना, चांदी, तांबा, कांसा का पात्र पितरों के तर्पण में प्रशस्त माना गया है। मिट्टी-लोहे का पात्र सर्वथा वर्जित है।
कुशा के अग्रभाग से देवताओं का, मध्य से मनुष्यों का तथा मूल व अग्रभाग से पितरों का तर्पण किया जाता है। श्राद्ध और पितर-श्राद्धों का पितरों से अटूट संबंध है। पितरों के बिना श्राद्धों की कल्पना नहीं की जा सकती।
श्राद्ध पितरों को आहार पहुंचाने का आधार मात्र हैं। मृत व्यक्ति के लिये जो श्रद्धायुक्त होकर तर्पण, पिण्ड दाना आदि किया जाता है, उसे श्राद्ध कहा जाता है। जिस मृत व्यक्ति के एक वर्ष तक के सभी और्ध्व दैहिक क्रिया कर्म सम्पन्न हो जायें उसी को ’पितर’ की संज्ञा हो जाती है। अतः मृत्यु से पहले वर्ष तक मृतात्मा के निमित्त श्राद्ध करने का विधान नहीं है।
वायु पुराण के अनुसार श्राद्ध में श्राद्धकर्त्ता का मुख्य उद्धेश्ये यह होता है कि मेरे वे पितर जो प्रेत रुप हैं, तिलयुक्त जौ के पिण्डों से तृप्त हों। साथ ही सृष्टि में हर वस्तु ब्रह्या से लेकर तिनके तक, चर हो या अचर मेरे द्वारा दिये जल (तर्पण) से तृप्त हों।
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